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कई दिनों तक चूल्हा रोया

कई दिनों तक चूल्हा रोया

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास।
 जब उस माँ ने दुनिया छोड़ी,टूटी मन की आस।।

सावन के झूले भी रूठे, बिछड़ गए सब मीत।
 अम्मा बाबुल का अपनापन, जैसे बना अतीत।।
माँ के बिन हम बहनें मानो, काट रहीं वनवास।
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास।।

 जो मायके से बाँधे थी हमको, जननी थी वह डोर।
 सेतु टूटने से खुल जाते,प्रणय बंध के छोर।।
उसके बिन होता पीहर में, मातम का आभास।
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास।।

 एक सूत्र में पिरो रखे थी, वह रिश्तो की माल।
 बिखरे मोती टूटा धागा, हाल हुआ बदहाल।।
 नहीं मात सा कोई जग में, उसमें प्रभु का वास ।
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास ।।

होली की गुझिया सी माता, दीवाली मिष्ठान।
माँ के बिन नीरव है पीहर, जैसे हो शमशान।
बेसन के लड्डू की खुशबू, बनी भूत एहसास।।
 कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास।।

प्रीति चौधरी"मनोरमा"
जनपद बुलंदशहर
उत्तरप्रदेश

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2 Comments

Beautiful,,, बहुत ही सुंदर और बेहतरीन रचना

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Varsha_Upadhyay

22-Jul-2023 07:32 PM

बहुत खूब

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